बिरसा मुंडा आदिवासियों के भगवान की पूरी कहानी, जानिए कैसे बने थे 'धरती आबा'?
कभी–कभी इतिहास ऐसे लोगों को जन्म देता है जिनकी गूंज पीढ़ियों तक सुनाई देती है. बिरसा मुंडा भी ऐसे ही व्यक्तित्व थे, जिनके नाम से अंग्रेज हिल जाते थे और आदिवासी समाज उन्हें भगवान की तरह पूजता है. झारखंड की धरती पर जन्मे इस युवा योद्धा ने जल, जंगल और जमीन की लड़ाई को ऐसा रूप दिया कि अंग्रेजी शासन की नींद उड़ गई थी. उनकी एक पुकार पर हजारों लोग खड़े हो जाते थे और जब उन्होंने खुद को ‘धरती आबा’ कहा, तो पूरा समाज उनके पीछे हो लिया. आखिर कैसे एक साधारण परिवार का नौजवान इतने बड़े आंदोलन का नेता बन गया? यही कहानी आज भी लोगों को प्रेरित करती है.
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दरअसल, आज बिरसा मुंडा की 150वीं जयंती है. इनका जन्म 15 नवंबर 1875 को खूंटी जिले के उलिहातू गांव में हुआ था. प्रारंभिक पढ़ाई चाईबासा के जर्मन मिशन स्कूल में हुई, जहां से उनके विद्रोही स्वभाव की झलक मिलनी शुरू हो गई. इसी दौरान सरदार आंदोलन चल रहा था, जिसने उनके मन में विद्रोह की लौ जगा दी.
वहीं मिशनरियों के विरोध ने बिरसा को मिशन स्कूल से बाहर कर दिया. इसके बाद उन्होंने ईसाई धर्म भी त्याग दिया और स्थानीय परंपराओं की ओर लौटे. 1891 में वे आनंद पाण्ड के संपर्क में आए, जो धार्मिक ग्रंथों के ज्ञानी थे. यहीं से बिरसा के विचारों में एक नया रूप दिखने लगा.
उधर सरकार ने पोड़ाहाट क्षेत्र को सुरक्षित वन घोषित कर दिया, जिससे आदिवासियों में भारी नाराजगी फैल गई. बिरसा भी इस आंदोलन से जुड़े और धीरे-धीरे समाज में उनकी पहचान बढ़ती गई. लोगों ने उन्हें ‘धरती आबा’ कहकर मानना शुरू कर दिया, और वे आध्यात्मिक गुरु की तरह स्थापित हो गए.

अंग्रेजी हुकूमत ने 1895 में पहली बार बिरसा को गिरफ्तार किया, क्योंकि उनके प्रवचनों में बड़ी भीड़ उमड़ती थी. अंग्रेज भीड़ को खतरा मानते थे. दो साल बाद उनकी रिहाई हुई, लेकिन अपने समाज की पीड़ा देखकर वे फिर आंदोलन की राह पर लौट आए और अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई तेज कर दी.
बिरसा का आंदोलन 1895 से 1900 तक चलता रहा, जिसमें 1899 सबसे तीव्र रहा. इसी दौरान इनाम की लालच में कुछ लोगों ने उन्हें पकड़कर अंग्रेज अधिकारियों को सौंप दिया. इसके बाद उन्हें रांची जेल भेज दिया गया, जहां बीमारी के दौरान उनकी हालत बिगड़ी और वे धीरे-धीरे कमजोर होते गए.

9 जून 1900 को हैजा के कारण रांची जेल में बिरसा की मृत्यु हो गई. आनन-फानन में कोकर पास डिस्टिलरी पुल के निकट उनका अंतिम संस्कार जल्दबाजी में कर दिया गया. लेकिन जाते-जाते वे एक ऐसी छाप छोड़ गए कि आदिवासी समाज ने उन्हें भगवान का दर्जा दे दिया. आज भी ‘धरती आबा’ के नाम से लोग शक्ति और संघर्ष की प्रेरणा लेते हैं.
